युद्ध से धर्म

yudh se dharm

युद्द से धर्म

गीता मे कहा गया है कि युद्द अंतिम बिकल्प है। यदी शांति के सारे उपाय विफल हो जाय तो युद्द के तरफ जाना चाहिए। स्थापित परंपरा के अनुरुप हमे आगे बढ़कर मानव की सेवा भाव के प्रति आरुढ़ रहना चाहिए। यदि इसमे अवरोध है तो इसका प्रतिकार हो तथा युद्ध भी यदि करना परे तो पिछे नही हटना चाहिए।

इतिहास मे युद्ध की अनेको कहानी मिलती है। किस्से कहानीयों मे भी हम युद्द की गाथा सुनते है। मनोरंजन मे होने वाले आनन्द भी एक ऐसी ही गाथा से गुजरता है। चार्लस डार्विन ने कहा था अस्तित्व के लिए जिवों मे संधर्ष होता है, जो संधर्ष मे जीवित बचता है वही आगे जाता है।

धर्म का आधार ज्ञान प्रकास फैलाना है। जीवन के आरपार तथा जीवन के साथ की समस्त मुल भाव धर्म ही समझाता है। युद्ध एक बिचार के प्रभावी होने मे होने वाली वाधा पर बिजय पाना होता है। इसका निर्धारन व्यक्ति स्वयं करता है। इसके बाद वह अपने बिचार के प्रभाव के लिए संधर्ष करता है। युद्द मे एक बिचार की हानी होती है तथा दुसरा बिचार आगे निकल जाता है।

युद्ध से धर्म का तातपर्य एसे धर्म से है जिसमका मुल भाव युद्ध ही है। अपने बिचार शक्ति की प्रवलता को बनाये रखने के लिए हर समय प्रयास करना जो अपने बिचार का ना हो उन्हे अलग रखकर प्रतारीत करना। उन्हे अपने बिचार मे लाने के लिए प्रयास करना। इसके लिए सतत क्रियाशील रहने की जरुरत होती है। क्योकि समाज मे बिचार की स्थिरता नही रहती है। समय एवं परिस्थिति के हिसाव से बिचार की शैली बदलती रहती है तथा बिचार भी परिवर्धत होकर आता जाता रहता है। लेकिन एक बिचार के प्रवाह को बनाये रखने के लेए काफी सशक्त रहने की जरुरत होती है।

हमारे समाज मे तर्क करने की क्षमता सभी मे एक समान नही होता है। तर्क के कारण व्यक्ति की सोच गहरी हो जाती है। साधक अपने तर्क की क्षमता को बढ़ाकर कई तरह के बिध्न को पार कर सकता है। यदि यही बिचार का प्रवाह होने लगे तो यह लोगो के लिए अनुकरणीय हो जाता है। फिर इस तरह के बिचार के मानने वाले स्वयं को एक बिचार धारा की संज्ञा दे देते है। जिनके पास तर्क की क्षमता कम या विल्कूल नही होती है वह तो सिधा जीवन की प्रवाह जीते चला जाता है। वह आज के लिए ही जीता है तथा खुश रहता है। कल के लिए उसका कोई सटिक प्लान नही रहता है। इस तरह के लोगो को एक बिचार मे लाना आसान होता है। जिसमे यह सुनिश्चि हो की उसका वर्तमान सही होगा।

हिन्दु धर्म मे बिचार की स्थिरता नही है ज्ञान की तरलता को बनाये रखते हुए एक प्रसंग रखा जाता है जिससे की वह व्यक्ति स्वयं की साधना से अपना बिचार चुन कर स्वभाव से जीवन को आगे ले जाय। यहि विचार का प्रवाह आगे चलकर हिन्दु जीवन शैली वन गया जिसमे कई धर्म समाहित है।

कुछ धर्म में बिचार की स्थिरता है। वहां जो आचरण कहा गया है उसके बिपरित जाने वाले के लिए उचित सलाह के साथ न्याय की कठोरता भी दर्शाया गया है। इसके कारण व्यक्ति सशक्त होकर आगे निकलता है। उसके पास सोचने की क्षमता सिमित होता है। साधन के बिकल्प के साथ वह आगे निकलता है। आपने बिचार की स्थिरता को बनाये रखने के लिए उसे सतत प्रयास करना होता है। उनके अपने धर्म ग्रंथ को उच्चता के साथ साथ व्यवहार के दृढ़ता का भी ख्याल रखना होता है। इससे एकता के सुत्र मुजबूत होकर व्यक्ति स्वर्थ की पराकाष्टा के तरफ बढ़ता है। अपने से अलग बिचार वाले को प्रतारित करते हुए मोह के सारे वंधन को तोरकर युद्ध के हर समय ततपर रहना होता है। आस्था की धारा भी सख्त है ताकि भटकाव का समय ना हो।

ईसाई धर्म मे भी अपने हक आधिकार के प्रति सजग रहकर आगे बढने के लिए कहा गया है। लेकिन ईसमे एक बिचार के तहत बंधे रखने की बात नही है। आपने बिचार के लिए दुसरो की हानी की बात नही है।

बिकाश के क्रम मे बिचार से सशक्त रहने वाले धर्म का तेजी के साथ बिकाश हुआ तथा एक बड़े भु भाग पर उसका कब्जा बनता चला गाया। लेकिन ज्ञान की बिकाश की धारा मे समित रह गया। ऐसा उसके जीवन शैली को नियमित एवं नियंत्रित करने के साथ बिचार तथा व्यवहार को सिमित करने से हो गया। समय के साथ बिज्ञान के बिकाश ने रही सही कसर पुरी कर दी।

अब सारे धर्मावलम्वी मानव के धर्म के बारे मे बिचार करते है उसके बाद ही कोई दुसरा धर्म का बिचार आता है। यदि कोई व्यक्ति किसी बिचार का बिरोध नही करे तो उसकी हत्या नही होनी चाहिए तथा उसको जीवन जीने का सुअवसर मिलना चाहिए। उसके अधिकार की रक्षा हो यही मानव धर्म का मुल मंत्र है। इसकी परताल करने के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रयास चलता रहता है।

युद्ध को धर्म के नजरीये से देखना स्वार्थ की महिमामंडल का एक रुप है जिसमे धर्म की हानी तथा व्यक्ति की परिशेनी होती है। ततकाल तो उसका मनोभाव उच्चतर स्तर पर रहकर स्वयं को बलवान करता हुआ आनन्दित होता रहता है।

हे मानव सुख की खोज ही तुम्हारा उलझाव है यही वो फांस है, जिसमे तुम स्वयं को वांधते चले जाते हो। इससे वाहर निकलने की तुम्हारी सोच तुम्हे और निचे गिरा देती है। तुम तो अपने दैहिक बातावरण से बाहर निकलकर जीवन को समझने की कोशीश करो यहीं से तुम्हारी आपनी यात्रा का शुरुआता होगा, जो सतत तुम्हारे लिए कल्याणकारी होगा। तुम्हारे करने योग्य कार्य क्या है इसका निर्धारण तुम स्वयं करो। इसके लिए साधक वनो। साधक के पास तर्क की क्षमता का बिकाश होता है। जो ज्ञान की तरलता का सुचक है जिससे जीव का समस्त कल्याण संभव हो। तुम नित के साथ रहकर उसका गुणगाण करो स्वयं को उर्जावान करो। सफलता के शिखर पर चढ़कर सवका सम्मान करो। इतिहास मे अपना नाम करो। जय हिन्द।

लेखक एवं प्रेषकः- अमर नाथ साहु

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By sneha

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