भुक्खड़

भुक्खड कहीं का

भुक्खड कहीं का

भुख्खड़ कहीं का भुक्खड कहीं का आजकल के आपाधापी जिन्दगी के भागमभाग मे उलझन भी कम नही है। धर्म के घटने से आसुरी प्रबृति जन्म लेने लगी है। बेलगाम बिज्ञान रुपी धोड़े की चाभी उडण्डों के लग गई है, जिसमे मानव मुल्यो का चितन ही नही है। हर बस्तु को बिकाऊ मानकर बजार मे उतार रहा है। अमुल्यवान बस्तु भी हांफने लगी है कि कही उसका भी दाम न लग जाये। यदी ऐसा हुआ तो उसे भी बाजार की प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। प्यार मोहब्बत के नाजुक रिस्तो भी मौज मस्ती का साधन बनते जा रहे है। टुटते बनते…
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