अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान को छोडना
कर्म प्रधान यह संसार नानाप्राकर के कर्मो मे उलझा रहता है। बहुत सारी घटना एक साथ संपादित हो रही होती है। सबको समझकर उसका समायोजन करना संभव नही होता है। जहां संभावना बनती है, वहां भी ज्ञानी परुष यह कहकर घटना मे हस्ताक्षेप करने से इंकार कर देते है, कि घटना के घटक को अपने कर्मो का फल उसके अनुरुप प्राप्त हो। कभी-कभी हमारे द्वारा किया गया सही कार्य भी समान्य सोच मे नही आ पाता है। और हमारी हमत्ता कम कर आंकी जाती है।
अमेरीका द्वारा द्वितीये बिश्व युद्ध मे बिजयी होने के वाद जिस बैश्वविक माहौल का वह हिस्सा बना, वह अपने आप मे उलझता चला गया। ज्ञान बिज्ञान के बिच एक लम्वी खाई बन गई। शिक्षा से ज्ञान का विकाश हो भी सकता है, और नही भी, लेकिन वह कर्मयोगी जरुर होता है। जिससे उसका बिकाश अवश्य होता है। बिज्ञान को यहीं पर अपना रास्ता तलासना होता है। क्योकि मानव का नियंत्रन एवं संयोजन करना ही राजनीति का एक मात्र लक्ष्य होता है। अपने नियत कर्म के आधार पर कई राष्ट्र आगे निकलने की होर मे शामिल हो गया। बिश्वस्त बिज्ञान की डोर थामे अमेरीका भी पिछे पिछे दौर चला।
ज्ञान बिज्ञान के बिच की इस लड़ाई मे अमेरीका अपने को आगे निकाल ले जाने मे सफल भी रहा। लेकिन समय के साथ उसको जबरदस्त प्रतोरोध का समाना करना पड़ा। वर्ल्ड ट्रेड शेन्टर पर हमला इसी का एक संयोग था। अमेरीका अपने अफगानीस्तान मे अपने बिज्ञान की बिजयी पताका लहरा दिया। लेकिन फिर ज्ञान की एक अलग बिचारधारी लोग का जबरदस्त प्रतिरोध का समान करना पड़ा। यह प्रतिरोध कई मामले मे धातक सिद्ध हुआ। कहा जाता है जब मानव स्वयं को हथियार बना ले तब मानव मुल्य की परिभाषा ही बदल जाती है। मानव बम्व का लगातार प्रयोग होना इसीका एक रुप है। बिज्ञान की लड़ाई यहां भी हावी रहा। लेकिन प्रभावी कारवाई नही दिखा सका। क्योकि प्रतिरोधी की ज्ञान की धारा ही अलग है।
अमेरीका द्वारा पुरे घटना क्रम का लगातार बिश्लेषण किया जाता रहा। परिणामतः उसने अफगानीस्तान को छोड़ने का मन बना लिया। उसका नजरिया था, कि ज्ञान के इस बिशेषधारा को तोड़ना बिज्ञान के लिए एक लम्वे प्रयास की जरुरत है। जो राजनीतिक रुप से सही नही है। राजनीति तो उपजाउ भुमी पर उगने वाला फल है, जिसे कोई राष्ट्र काट ले जाता है। भुमी पर फसल उगाने मे लगने वाला श्रम के प्रति वह यथेष्ठ नही रहता है।
अफगानिस्तान को उसके हालात पर छोड़कर अमेरिका अपने सैनिक सहित वतन वापस लौट गया। अफगानिस्तान वासी जिस खुली हवा मे सांस लेकर अपने एक खास ज्ञान की वकालत कर रहा था, वही ज्ञानी लोग उसके शासक बनकर उसके सामने खड़े हो गये। जब अफगानिस्तानी को अपने ज्ञान के बास्तविक रुप से परिचय हुआ, तो उसका गला रुद्ध गया। उनका बतन खुद के लिए असहनिय लगने लगा। उसका अपना बास्तविक ज्ञान उसे लगातार अपने वतन से जोड़कर रखना चाह रहा था। क्योकि रास्ते तो आगे भी कठिन है। चलो साथ चलो। हम जहां तक अपने ज्ञान की परिभाषा से लड रहे है, आओ मेरे साथ आओ। अफगानिस्तानी को अब यह समझ आने भी लगा है। अंधकार से प्रकाश और प्रकाश से फिर अंधकर मे आने जाने का ये खेल बड़ा निराला है। सारी दुनिया इस अदभुत प्रत्यक्ष घटना को देखकर अपने गिरेवान मे झांक रहा है। अपने को तैयार कर रहा है, कि कल कोई और ऐसी ज्ञान की धारा चल पड़ी तो उससे बिज्ञान को कैसे निकलना है।
आज के समय मे सम्पुर्ण बिश्व के बैज्ञानिक इस समस्या के सही समाधान मे जुट गये है। हर राष्ट्र के लोग अपने तरह से इसका हल खोज रहे है। किसका बिज्ञान वहां जादु चलायेगा तथा इसका परिणाम क्या होगा, हर अमेरकन की इसपर नजर रहेगी। क्येकि अमेरिका राष्ट्रपति जो बाईडेन यह कह भी चुके है।
अमेरिका जैसे आया वैसे लैट भी गया। हम अपनी ज्ञान की थाली लिये आज भी अफगनीस्तान मे संभावना की तलाश कर रहे है। हमारी राजनीति को एक कुशल कारिगर की जरुरत है. जो यह सावित करे कि वह एक सफल योजनाकार के साथ शिल्पकार भी है। यह तो समय ही बतलायेगा की ज्ञान बिज्ञान की इस समायोजन मे कौन आगे निकलता है।
हमारे लिए तो स्वयं के अंदर ही ऐसा ही एक लड़ाई चल रहा है। हम अपने वास्तविक जिवन शैली को छोड़कर बिज्ञान के पिछे भाग रहे है। हम लगातार खुश रहने की बृति लिये आगे जाने की कोशिश करते है, कि कोई एक ज्ञान की धारा मेरा मार्ग रोककर खड़ा हो जाता है। हम वहां से निपटकर आगे निकल जाने तथा जितने की मुहिम मे है।
बास्तविक जिवन के लिये ज्ञान की एक धारा को मजबुती प्रदान करना होगा, जिसपर की राजनीति का शसक्त पेड़ उग सके। समाधान तथा समायोजन एवं उसका समय के साथ पु्नर्निर्धारण जरुरी है। जय हिन्द
लेखक एवं प्रेषकः अमर नाथ साहु