लहरों की कहानी
सागर अपनी विशाल जलराशि के कारण शांत बना रहता है। जबकी हवा का झोंका पानी के सतह से जब टकराकर आगे बढ़ती है तो अपने साथ सागर के सतह के पानी को गतिमान कर देती है जिससे सागर मे लहरें बनने लगती है। यह लहरें हवा के झोंकों के साथ आगे बढ़ती जाती है और एक बड़ी लहरें बनकर सागर के तट से टकराती है। लेखक का कहना है कि जो सतह का पानी हवा के संपर्क मे था ओ हवा के साथ चलने लगी लेकिन हवा आगे निकल गई और लहरें की पानी वापस सागर मे आ गई। सागर के पानी के यात्रा का सफर सागर के तट तक ही था। सागर की शांति को भंग करती ये लहरें लगातार बनती बिगरती रहती है। मन के भाव भी बाहर के उद्वीपन के साथ तरंगित होकर हमे उच्चश्रिंख कर देता है जिससे हम उस समय के बिचार की दिशा मे आगे निकल जाते है। जैसे सागर का पानी पुनः सागर मे आ जाता है उसी प्रकार मुल प्रकृति को व्यक्ति पुनः प्राप्त हो जाता है। वह उद्वीपन जो हमे उत्तेजित किया था समय के साथ आगे निकल जाता है। हमारे मुल प्रकृति को जगाने वाले भाव ही हमारे है जिससे हमे सुख और शांति को प्राप्त हो सके।
सागर के उपरी जलराशि ही प्रभावित होती है शेषजलराशि यथावत बनी रहती है जो सागर के शांति को प्रदर्शित करती है। उसी प्रकार हमारे भाव को गती देता लोभ के कारक हमे प्रभावित करते है तथा हमे अपने मूल भाव से बिचलित कर देते है। ऐसा होना सागर के जल की तरह मन के भाव के बिचलन भी स्वभाविक है लेकिन इसको नियंत्रित किया जा सकता है। इसके नियंत्रण से ही हमारे अंदर विशिष्टता आती है जिससे हमारा मन सामान्य से विशिष्ट बन जाता है जो हमारे येक्षिक कार्य को संपादित करते हुए हमारे जीवन को उतकृष्ट बना देता है।
सागर के पानी कुछ भाप बनकर हवा के साथ चलने लगती है जिससे सागर के तट का मौसम सुहाना रहता है। साथ ही यहां से ठंढ़ी हवा भी आगे बढ़ती है। सागर का कहना है कि जो पानी भाव बनकर हवा मे चली गई थी उसको ठंढ़ी होकर पानी की बूदें बनना होगा जो फिर वापस बर्षा के रुप मे धरातल पर आयेगी और पुनः नदी-नाला होता हुआ सागर मे आ जायेग। हमारे मन के भाव भी हमे तरंगित करके हमे ततकालिक लाभ देते है लेकिन समय के साथ ये ततकालिक लाभ हमे आत्मिक भाव के साथ नही जुड़ पाते है। इसलिए कहना है कि इस छनिक लाभ के लिए मन को भटकाना नही चाहिए। इसको विशिष्ट कार्य मे लगातकर आत्मा की शक्ति को ताकतवनर बनाकर जीवन मनण से मुक्ति को भाव को पाना चाहिऐ।
मन के भाव को समझते हुए हमे अपनी भावना के लगातार बनने और बिगरने को समझने की जुरुरत है। हमारे मन मे लगातार कुछ न कुछ चल रहा होता है। हम कितनी भी शांत क्यो न हो हमारा मन स्थिर नही रहता है। इसका यही गुण हमे स्वप्न दिखाता है कुछ पुरानी कुछ नयी कुछ काल्पनिक कहानी बनते बिगरते रहता है। सागर के लहरें की तरह ही ये भावनाये हमारे व्यवहार की हिस्सा नही हुआ करती है। लेकिन कुछ ऐसे भाव होते है जो हमारे व्यवहार का हिस्सा बन जाते है। यही हमे विचलित करते है। यह विचलन हमे समय के साथ कुछ खट्टे-मिठे यादें दे जाता है। फिर हमे कुछ सिख मिलती है और हम अनुभव के रुप मे इसे संभालकर रख लेते है। यानी हमारी भावना अब सुदृढ़ हो गयी है यह हम कह सकते है। यानी सागर मे पानी के वापस आने की कहानी यहां बनती दिखती है। जैसे सागर शांति की कामना पानी से करता है वही कामना जीव आपनी भावना से करता है। मन की शांति भाव के बनने से होती है और भाव के प्रकटिकरण को दिल की बात के रुप मे संबोधन किया जाता है।
उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट है कि जो हो रहा है उसपर हमें पुर्ण रुप से नियंत्रण कर पाना संभव नही है। यदी संभव होना है तो सागर मे हवा को रोकना होगा और मन के अंदर बाहर के उत्तेजक संवेदना को रोकना होगा। जिससे शांति को पाया जा सके। यही से साधना का मार्ग बनता है। जो जीव की शांति के लिए एक अच्छा स्त्रोत है। उपर्युक्त प्रसंग के जरीये लेखक मन मे उत्पन्न होने वाले तरंग को नियंत्रण के प्रति आगाह करता है। यह कि सागर की तरह लहरे यानी मन मे तरंग का बनना स्वभाविक बृति है इसके नियत्रण से हम शांति को पा सकते है जो हमारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगी।
भाव पुर्ण इस लेख को रुचीगर बनाने हेतु काव्यात्म रुप मे लिखा गया है। हमे समय-समय पर अपने बिचार को शुद्ध करना होता है जिससे हमारी आंतरिक शाति बनी रहे और हम प्रकृति के साथ ज्यादा धुलमिल कर आनंद को प्राप्त कर सके। जय हो।
लेखक एवं प्रेषकः अमर नाथ साहु
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