आनन्द चतुर्दशी

आनन्द चतुर्दशी

यह धागों का त्योहार है। इसमे भगवान बिष्णु की पुजा की जाती है। भगवान बिष्णु को प्रतिपालक कहा जाता है। वे जीवआत्मा के पुरे कर्म को नियंत्रित करते है। एक प्रभावी कर्म को करने के लिए एक प्रेरणा का होना होता है जिससे जीवन को सबलता मिलता है। जीव के जीवन का यह सबसे हमत्वपुर्ण काल जन्म से मृत्यु तक का समय होता है। इसा समय मे अपने कर्मो के द्वारा अपने आत्मा को एक शक्तिशाली, प्रभावी और उर्जवान योग प्राप्त करना होता है। इसी से भगवान विष्णु की पुजा की जाती है तथा संकल्प के रुप मे धागे के त्योहार को मनाया जाता है।

इस संसार में व्यवस्थित रुप से रहने के लिए कई प्रकार की वंधन, संयोग, बियोग तथा संयोग का निर्माण किया गया है। आपको एक सफल व्यक्ति बनने के लिए सवसे उपयुक्त का चुनाव करना है, जिससे की आपका जिवन सफल हो जाय। यह कठिन कार्य है लेकिन इस कठीनाई को दुर करने के लिए लगातार प्रयास की जरुरत होती है। मार्गदर्शक के रुप मे भगवान विष्णु की आधारना एक कल्यान का मार्ग है।

पुर्व कर्मो के आधार पर प्राप्त आपका जीवन अपने विभिन्न आयामों के साथ आगे निकलता रहता है। आपको आने वाला पल कैसा हो उसके संयोग बियोग से आपका सामना होता है इसको संयोग मे बदलने के लिए साधना जरुरी है। साधना ही आपको वास्तविकता का बोध करायेगा। इसी वोध से जीवन के सही मार्ग को पाया जा सकता है।

चौदह गांठो वाला यह धागा का वंधन आनन्द भगवान की आराधना से वांधा जाता है। पुरुष दाहीने हाथ में केहुनी के ऊपर तथा स्त्री वांये हाथ मे वांधती है। भगवान विष्णु भी बंधन के भाव से मुक्त नहीं है। शेषनाग पर आसनाधीन भगवान बिष्णु जगत के पालन का पुरा ख्याल रखते है। वंधन के इस भाव को भगवान के व्यवस्थित रुप से भी समझा जा सकता है।

कथाभाव से यह ज्ञात होता है, कि कर्म प्रधान यह जीवन कर्म की सर्वाच्यता को सदा स्थापित करता है, जो जीव इस भाव में संपाददित होता है, उसी का मुक्ति संभव है। हमारा कर्म हमें सरवोच्यता प्रदान करे इसके लिए प्रकृति के नियम को सुचिवद्ध करके हमें आगे निकलता है। हमारे साथ रहने वाला हिंसक, बिशैले तथा कोमल जीव सबका जीवन चलता है। हमें सबके साथ न्याय से व्यवहार करने आना चाहिये। यह भाव वन्धन है। सुख, समृद्धि, शांति तथा आर्थिक उत्कर्षता को प्राप्त करने के लिए यह बंधन जरुरी है।

भगवान बिष्णु को पुनीत द्वारा बन्धित यह बंधन आने वाले जन्म मे बिषम परिस्थिती से मुक्ति दिलाता है। यह भाव हमारे अंदर संपादन का कार्य वही वंधन करता है। एक जन्म के कर्म को दुसरे जन्म के कर्म से जोड़ने वाला ये बंधन बड़ा ही महत्वपुर्ण है।

मुझे एक दिव्य अवलोकन से ज्ञात हुआ की साधना बिहीन मानव जब अपना शरीर छोड़कर आत्मिक दुनीया में जाता है, तो उसका बिकार नष्ट नहीं होता है। उसका आचरण भी उसके कर्माणुरुप रहता है, जिसके कारण उसके शक्ति का हास होता है। 12 वर्ष के बाद उसकी शक्ति कम हो जाती है। जबकि उच्च साधन के यानी देवरुप आत्मा के साथ ऐसा नहीं होता है। अनन्त भगवान की आराधना, बिष्णु की साधना तथा अनन्त धागा का साथ हो तो क्यो न जीवन मे विश्वास और हो कल्याण हो। जय भगवान विष्णु

नोटः- यदि यह कविता आपको अच्छा लगे तो अपनो तक इसके लिंग को भेजे, जिससे कि उनका भी मार्गदर्शन हो। जय हिन्द

लेखक एवं प्रेषकःः अमर नाथ साहु

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By sneha

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