वक्त का आईना
वक्त के आईना मे खुद को निरखना एक कला है अपने अंदर की ओर झांकने का कार्य ऋषि मुनी करते है, जिससे की उनका आत्म दर्शन हो जाता है। लेकिन व्यवहारिक मनुष्य के लिए ऐसा कर पाना समान्य व्यवहार मे नही आता है। इसलिए वह समय के साथ अपनो को ढ़ालने के लिए वक्त के आईना मे खुद को देखता है तथा जीने की कला विकसित करता है जिससे की वक्त के साथ सही तरीके से समायोजन हो सके। जिससे बाद वह खुद को आगे निकालने के लिए यथेष्ट बन जाता है।
यहां लेखिका खुद को वक्त के आईने मे देखकर एक चित्रण प्रस्तुत कर रही है, जिससे की वक्त से साथ उसका समानजस्य बन सके। कमोवेश सभी को करना पड़ता है, क्योकि हम किसी न किसी व्यवस्था का भाग होते है और इसको बनाने के लिए हमे सही तरह से इसमे फिट होना होता है। इसलिए खुद को वक्त के आईने के देखना जरुरी है, जिससे की हम सभी बाधा को पार कर सके।
कहते है कि भाग्य सभी को एक बार मौका जरुर देता है, लेकिन हम जिस व्यवस्था का भाग होते है, उससे निकलकर एक नयी व्यवस्था मे जाने के लिए सही रुप से तौयार नही होते है। यदि हमारे पास वक्त का आईना हो तो हम वक्त का सही आंकलन करके स्वयं को नियोजित कर सकते है। लेखिका का यह भाव पुर्ण अभिव्यक्ति समय के साथ चलने को लेकरके है।
आज के व्यस्त जीवन मे लोग धारा के साथ बहे चले जाने को ही जीवन समझते है, जो उसको जीवन के मुल्यहीनता के तरफ ले जाता है। इस मुल्यहीनता से बचने के लिए लेखिका का यह विचार उपयोगी सावित होता है, कि हे पथिक वक्त वे वक्त अपने को वक्त के आईने मे देखो की तुम कितना सशक्त हो। इसका भान ही तुम्हे शक्ति संतुलन योग्य बनने का संवेदना तैयार करेगा जिससे तुम सही राह पर चलकर दुसरे के लिए आदर्श बन सकोगे।
हे मानव आपका समग्र कल्याण ही जन चेतन को बनाये रख सकता है। आज जिस परिस्थिती का सामना हमलोग कर रहे है, उसमे दुसरो को दोषी ठहराना तथा खुद को सही बताकर एक नयी व्यवस्था बनाने से पाकृत के साथ होने वाला खिलवार मानव के लिए नुकसान देह हो रहा है।
इतिहास गवाह है कि जब – जब असंतुलन की स्थिती आई है, एक महासंग्राम का जन्म हुआ है। आज किसी ने एक आवाज दी है तो क्यो न इस पुरानी स्थूल परे योग को अजमाया जाय। आपका समग्र कल्याण हो इसकी कामना के साथ हम आपके बहुमुल्य समय निकालकर आपना भाग्योदय हेतु दिया जाने वाले समय के लिए आपको नस्कार कहते है तथा लेखिका की ओर से लेख को सप्रेम भेट करते है। यह हिन्द
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लेखिकाः- शालु प्रसाद
सम्पादकिय लेखः अमर नाथ साहु
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