स्वाभिमान

स्वाभिमान

स्वाभिमान का होना बिकाश की ओर अग्रसर के भाव रखने वाले के लिेए अच्छा माना जाता है क्योकि उससे उनका एक छवि गढ़ने का भाव मान मे रखना होता है, जिससे वह अपने गनत्व शिखर तक आसानी से पहुँच सके। स्वाभिमान एक गुणात्मक पहलु है। गुण को गढ़ने की कला यदी गुणी के पास मौजुद है तो उससे उसका पुरा परिदृष्य साफ हो जाता है। वह उपने मुकाम पर पहुँचकर फिर पिछे की तरफ नही देखता है जिससे की उसका भाग्योदय होना माना जाता है।

स्वभाव मे गुण के कारण उसकी क्रियाशिलता बनी रहती है। वह सतत अपने विकाश के प्रति आगे निकलता चला जाता है। उसको अपने कार्य के प्रति सिर्फ श्रधावान रहने की जरुरत होती है। मार्ग मे आने वाली बाधा को अपने लक्ष्य के अनुसार साधना होता है। जिससे की उसके स्वाभिमान की रक्षा हो सके।

यहीं पर यदि व्यक्ति अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए कोई अऩुचित मार्ग अपना लेता है तो उसका यह कार्य कलंकित होकर समाज के लिए दुखदाई बन जाता है। जबकि स्वाभिमानी व्यक्ति को अभिमानी संज्ञा देकर तिरिष्कार का समाना करना पड़ता है।

गीता मे भी कहा गया है हे मानव तु स्वयं का पतन न होने दो। यानी स्वयं को समय की धारा के साथ यथेष्ट बनाने रखने का कार्य सतत करते रहना चाहिए। जिसका एक स्वरुप स्वाभिमान को गढ़ना भी हो सकता है।

हमारा जो गुण हमारे साथ समाज को भी कल्याणकारी हो वह उत्तम मार्ग कहलाता है। क्योकि हमको समाज के भाग के रुप मे रहना है जिससे की हमारा पुर्ण समायोजन हो सके। शरीरिक यात्रा के सिमित समय मे बन्धकर जीने की कला को स्वर्थ की संज्ञा दी गई है। कहा गया है कि यह मानव के मुक्ति का मार्ग नही है।

आतः अपने कार्य को समाजिक समायोजन के साथ आगे लेजाकर स्वाभिमान को गढना हमे सफल व्यक्ति के रुप मे स्थान पाने के लिए सतत प्रयास करते रहना है।

अपने कार्य की प्रखरता को बनाये रखने के लिए हम जो प्रयास करते है, तथा जिससे हमारा विश्वास बनता है। हमारा स्वाभिमान कहलाता है। हमे अपने आप पर पुर्ण बिश्वास होता है। हम हर परिस्थिति का समाना करने की सामर्थ रखते है। जिससे की हमारा बिश्वास का लेवल काफी उँचा हो जाता है। इसको बनाये रखने को लेकर यदि हम कोई अनुचित रास्ता अपनाते हो यह औरो के लिए नुसकसानदेह होता है।

स्व मे अभिमान का मतलव स्वयं के अंदर के अंधकार को हटाना है। अपने कार्य पर पुरी तरह से बिश्वास का होना जरुरी है। लगातार हमारा चिंतन समायोजन कार्य प्रगती तथा सफलता हमारे स्वाभिमान को बढ़ाता है। दुसरे पर निर्भरता हमारी स्वाभिमान को समाप्त कर देता है। आतः प्रत्येक कार्य के लिए हमें सतत समय के साथ प्रयास करते रहना चाहिए।

स्वाभिमान को बनाने के लिए व्यक्ति को स्वतंत्र कार्य करना चाहिए। लगातार कार्य करना तथा समस्या का समाधान करना, फल प्राप्ति के प्रति सतर्क रहना जरूरी है। एक बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसको छोटे-छोटे टुकड़े में बाँटना तथा छोटे टुकड़े को लगातार चलने वाले टुकड़े मे बाँटकर करने से कार्य मे गति आति है। कार्य गति करने के प्रति लगाव को बढ़ाता है, तथा कार्य सम्पादन से स्वाभिमान जागता है। शक्ति का स्त्रोत कार्य ही है। अपने कार्य को अपनी जिम्मेदारी तथा स्वाभिमान का पाठ हमेशा बनाना चाहिए। अवरोध, जानकारी का अभाव, हिचकीचाहट से सभी कार्य मे बाधा डालकर उसे समाप्त कर देते है, जिससे हमारी स्वाभिमान का मान गिर जाता है।

बातचित करना, उसकी दिशा अपनी कार्य संपादन की तरफ जोड़ना एक कला है। लोगो का नम्बर लेना फिर सम्पर्क करना तथा लगातार प्रयास करना एक सार्थक पहल कहलाता है, जो स्वाभिमान को गढ़ता है। गुण उसका विन्यास तथा उसका सर्बोच्य आरोहन स्वाभिमान को कृतिवान बना देता है। हमेशा श्रेष्ठ आचरण करना चाहिए जिससे कार्य के प्रति मनोबन बना रहता है। कार्य से आनन्द की अनुभुति तथा उससे कार्य संपादन कार्य की निरंतरता को बनाता है। कार्य कि निरंतरता, ब्याख्या, तुलना तथा नया करने की कलात्मकता हमारे स्वाभिमान को एक नयी उँचाई प्रदान करता है। स्वाभिमान का स्वरूप आत्मिक पराकाष्ठा होना चाहिए। इसका प्रभाव यदि दैहिक होगा तो इसका स्वभाव बदल जाएगा, तथा यह शारिरीक का मान कार्य की पुर्णता को श्रेष्ठता प्रदान करना है।

समाजोन्मुखी कार्यक्रम हमारे लाभ की धारा को हमेशा बनाये रखता है, तथा हमारा सतत विकाश बना रहता है। सतत विकाश तथा उससे क्रियात्मक योग हमारे स्वभाव का हिस्सा बन जाता है जिससे मेरा स्वाभिमान मेरे मे जड़ता को गढ़ देता है। जड़ता ही हमारे कार्यरोधक भाव को बनाता है जो हठ तथा झुठी दिलासा दिलाता है। कार्य को समझने कि क्षमता का ह्स होना सुरू हो जाता है। इससे हमारे विचार की बिसंगती बढ़ती जाती है। अंततः हमारे परिणाम मे कमी आती है। लेकिन हमारा गुरुर हमे सही बनाये रखता है। हम दुसरो के कमतर आँककर अपना नुकसान को छोटा कर देते है, जो हमारे स्वाभिमान को ह्स होने का स्रर्बोपरी विकास बनाता है। हमारा नजरीया ही हमारा कर्म स्वभाव होता है।

स्बाभिमान की जमीन व्यक्ति का सफल परीश्रम बनाता है जिसपर उसका पुर्ण स्वामित्व होता है जिसको वह अपना विशिष्ट पहचान रखता है। वो सारे लोग जो इस दौर मे सामिल होता है उसका मुकाबला करने योग्य नही रहता है। उसके कार्य की प्रखरता उसका दुसरे को समझने की शक्ति को कम कर देता है। यह योग्यता का परिचायक है। योग्य वही है जो अपना स्वयं विधमान होने की महत्व को समझता है।

जय हिन्द

लेखकः- अमर नाथ साहु

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By sneha

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