काठ की नईया
यह जोगीरा एक यौवन की उच्चश्रृखता को दर्शाता है। परदेश मे रहने वाले परदेशी को याद करती बिबी की मनोभावना को व्यंग के जरीये जिम्मेदारी का एहसास समाज को कराता है। उमंग उल्लाश का अपना एक गणित होता है जिसमे इसको साधना कठिन हो जाता है। होली का त्योहार के लिए लोग दुर दराज से घर को लौटते है। यह जोगीरा हमे कहता है कि मन की तरंग को समझते हुए होली के इस मिलन को सार्थक बनावे।
हमारा मन को व्यंग के ये बाण तरंगित करता हुआ समाज मे एकरुपता को स्थापित करता है। आशा कि किरण पत्नि को रहती है कि होली का पर्व उल्लास भरा होगा। शरीर को काठ की नईया कहकर यौवन के उमंग को पाने की तृष्णा को हवा मिल जाती है। पतवार को भी कमजोर बतलाकर पति को तरंगित करने का ये जोगीरा, आशा और बिश्वास के प्रति जागरुक करता है। अपनी व्यथा कहने मे संकोच करती महीला के लिए यह व्यंग संतुष्टि के भाव को जगाकर उत्साह वर्धन करता है।
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लेखक एवं प्रेषकः- अमर नाथ साहु
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