मां दुर्गा के युद्ध भुमी
सामाजिक न्यायिक जीवन निर्वाह के लिए उसके ताना-बाना को समझना होता है तथा उसके अनुरुप अपने को ढ़ालकर कार्य करने की कला विकसित करनी होती है। सामाज मे एक साथ कई घटना घटित होती है। सभी घटना को समझना तथा उसके अनुरुप चलना कठिन कार्य है। हमें अपनी कोई एक दिशा तय करनी होती है, जिसके सहारे हम आगे बढ़ते है। यही दिशा हमारे जीवन को एक अर्थ देता है। यह दिशा कौन हो, इसका सही प्रारुप क्या हो, इस बात को समझने के लिए हम समाज मे घटित होने वाले घटना को विश्लेषित करते है, तदनुसार योजना बद्ध होकर आगे बढ़ते है।
हम एक बिचार को प्रवाहित करते है जो आप तक कविता तथा लेख के रुप मे पहुँचता है, जो आपके मनोभाव को झकझोरता हुआ आगे निकल जाता है। आपके द्वारा दी गई प्रतिक्रिया आपकी सामाजिक अभिरुची को प्रतिविम्बित करती है। यही आपके विकाश का वास्तविक द्योतक भी होता है। आपका पाठ पढ़ना, न पढ़ना तथा यथा दुरी बना लेना आपके साहित्यिक अभिरुचि को दर्शाता है। व्यक्ति की गंभिरता का बोध उनके पाठ पढ़ने तथा उसकी प्रतिक्रिया देने के रुप मे सामने आता है। सही अर्थ मे वास्तविक जीवन को समझने का अधिकार भी उसे ही है। एक भाव को समझकर दुसरे तक पहुँचाना तथा दुसरे के भाव को अपने अंदर मे लाकर उसका समायोजन करना, एक शात्विक कार्य है। इससे जीवन मे शांति तथा सुख का संचार होता है।
सुख का स्थान हमारे हृदय मे है। यहिं से भाव बनता बिगरता है। इसको व्यवस्थित करने की जरुरत होती है, जो एक समग्र चिंतन से आता है। एक समग्र चिंतन यदि हमारे दिनचार्या से जुड़ा हो तो इसका सीधा समबंध ईश्वर से होता है, क्योंकि सही भाव के रचयिता वही है। इसलिेए यह जरुरी है, कि भाव का आदान प्रदान हो। जिससे एक समाजिक समरसता कायम हो।
हमारा सोच एक निहित स्वार्थ बन जाता है जब यह हमारे तक ही सीमित रह जाता है, क्योंकि इस बिचारों का सम्बन्ध व्यक्ति से हो जाता है। इसलिए यह जरुरी है कि हम सामाज के हिस्सा बनकर रहे तथा जीवन को समाजोपयोगी बनाये। हमारे दुखों का हल भी यही से निकलता है।
जब एक स्वस्थ्य बिचार हमारे मन मे पनपता है यथा आदान प्रदान होकर सशक्त बनाता है, तो हमारा शक्ति सम्बर्धन होता है। हम अपने को आंतरिक मजबुती के रुप मे आंकते है जो सही भी है। हमारा व्यवहार स्वतः सामाजिक हो जाता है। हम समाज के द्वारा सम्मान भी पा जाते है। सही भाव स्वार्थी को समझ मे नही आता है, और वह दोष भगवान को देने लगता है।
समय के साथ चलने वाला लेख एक पानी के बुलबुले के समान होता है पर यह मन के तरंग को स्थिर करने का कार्य करता है। यदि मन मे गलत तरंग पनप रहा है, तो उसका प्रतिकार का गुण हमें यहीं से मिल जाता है, और हम सामाजिक आलोचना से बच जाते है। हम स्वयं को भला करने के साथ-साथ सामाजिक उपदेशक भी बन जाते है। यही स्वभाव हमे उर्जा प्रदान करता है, जो हमारे सबलता का कारण बनता है।
हमने देखा है कि श्रेष्ठ बिचार रखने वाला का पुर्ण अहित नही होता है। वह समय रहते सम्भल जाता है। क्योकि उसको बिचार देने वाला मिल जाता है। क्योकि वह विचारबान है, और बिचार संग्रहन की क्षमता भी रखता है। स्वार्थी के पास समय के साथ साथ व्यवस्था की भी कमी होती है। वह सिर्फ स्वयं से ही खुश रहता है। बांकि का समय वह परनिंदा मे बिताता है, बजाय की वह एक स्वस्थ्य विचार सम्प्रेषक बन सके।
हमारा यह प्रयास तभी सार्थक होगा, जब हम और आप मिलकर एक व्यस्थ्य विचार को समाज के अंदर लगातार संप्रेषन करते रहे तथा ऐसे लोगो को आगे आने के लिए प्रोत्साहन देने का कार्य करते रहें। जहां तक संभव हो वहां तक करे। इसी आशा के साथ की आप एक दूसरे से जुड़कर आगे बढ़ते रहे।
विजयादशमी का महान पर्व धर्म का अर्धम के ऊपर विजय की कहानी है। माता के द्वारा अर्धमी का नाश करने के उपरान्त विजयोत्सव के रुप मे इस पर्व को मनाया जाता है। ये पर्व हमें उस ओर जाने से रोकता है, जहां अर्धम हो रहा है। हमें अर्धम के प्रति प्रतिबद्द होकर एकसाथ लड़ने की प्रेरणा देता है। धर्म अर्धम का अंतर करना कठिन होता है, यदि व्यक्ति मानसिक रुप से बिमार हो। इससे निकलने का मार्ग गुरू ही दिखा सकते है। इसलिए गुरु का स्थान महत्वपुर्ण होता है। मार्गदर्शन के उपरान्त भी यदि हठधर्मिता का रुख अपनाकर हम आगे निकलने की कोशिश करते है, तो हमें समान्यजन के प्रवल प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। यदि हम इससे भी पार निकल जाते है, तो हमे अपनो का सामना करना पड़ता है। यदि हमारे आगे जाने की प्रक्रिया लगातार जारी रहती है तो हमें स्वयं से लड़ना परता है। इस लम्बी लड़ाई के उपरान्त भी यदि अधर्मि का पराकाष्ठा बना रहता है, तो धर्म के स्थपाना के लिए भगवान खुद अवतरित होते है। तब जाकर इस कार्य को बिराम मिलता है। जनमानस मे ये कथा के रुप मे प्रचलित होकर जन समुदाय को उद्वेलित करता रहता है। हमें एक सिख देने के लिए इस तरह का प्रयोजन चलता रहता है।
माता दुर्गा की आस्था का ग्राफ सबसे ऊपर है। माता कुमारी कन्या के रुप मे दुष्टो का संहार किया। अवला समझने वाली नारी का ये रुप अती प्रचन्ड एवं समस्त जीव जगत मे व्याप्त है। इनसे हमारा सतत मार्ग दर्शन होता है, कि हम सदैव अपने लक्ष्य मे ध्याण लगाकर आगे बढ़े। हमारा भटकाव हमारी मृत्यु को आमंत्रण कर सकता है। माता कल्याणी है, ये अपने भक्तो का पुरा ख्याल रखती है। देव जगत मे ऐसा कोई नहीं जो भक्त वत्सल न हो। लेकिन माता दुर्गा को मनाने के लिए भक्त को जगह और तप को नही देखना होता है। दिल से माता को याद कीजिए माता का भाव आपको शक्ति प्रदान करने लगेगा। माता साक्षात दर्शन भी देती है। अर्जुन को भगवान कृष्ण ने माता दुर्गा को युद्द भूमी मे आवाहन करने को कहा था। अर्जुन के आवाहन पर माता दुर्गा प्रकट भी हुई और उनको विजय श्री के आर्शिवाद का कवच भी मिला।
हमारा आज का ये लेख और कविता इसी भाव को दर्शाने के लिए है। माता बिकट समय मे सही हल लेकर आती है। हम सिर्फ अपने भक्ति के प्रति कर्तव्यनिष्ठ बने रहे। हमारा भक्ति पक्ष हमारे साथ सतत रहता है तथा हमारा मार्ग दर्शन भी करते रहता है। यदि भटकाव की स्थिती आती है और व्याकुल भक्त यदि माता को याद करता है, तो माता भक्ति के अनुरुप भक्त को सहृदय मदद करती है। आज हमारा देश जहां खड़ा है, उसके आगे तृतीय बिश्व युद्ध के मध्य काल का सामना करना है। हमारे वीर योद्धा दुश्मन को लगातार चुनौती दे भी रहे है। हम भी अपनी ओर से माता से आवाहन करते है, कि हे माता उनके मनोबल को कभी गिरने न देना। यदि युद्ध भूमी मे ऐसा वक्त आये, कि उनकी भक्ति कम पर जाये तो हमारी भक्ति भी उन्हे दे देना। करुणामयी माता के शक्ति के आवाहन को भगवान कृष्ण अर्जुन के माध्यम से हर देशवासी को यह याद दिला गये की माता को याद करना न भुलना।
युद्द भूमी तो सजती रहती है, लेकिन इसका चुनाव भी हम ही करते है, कि हमें किसकी मदद चाहिये और किस रुप मे चाहिये। हमारा बिश्वास हमारी सबसे बड़ी पुजी है। इसका कोई तोड़ नही है। इसको बहस करके स्थापित नही किया जा सकता। यह तो हमारे हृदय के अंतहिन गहराई से निकलता है। जिसका प्रभाव हमारे कर्म पर भी पड़ता है। भाव की प्रधानता हमेशा बनी रहे इसी के लिए प्रतिवर्ष हमलोग माता दुर्गा का आवाहन करते है। इसी समय भारत माता के पुजा का भी आयोजन होता है। भारत माता को इनकी ही प्रारुप माना जाता है। माता के दिव्य रुप हमारे हर कामाना को पुरा करे हम इसकी कामना माता से करते है।
विजयादशमी का पर्व हर वर्ष धुमधाम से मनाया जाता है, और मानाया जाता रहे तथा हमारा अगाध लगाव बना रहे। हमारे देश का भविष्य उज्वल हो माता से हम ऐसी कामना करते है। माता के प्रति हमारा अपार श्रद्धा का जो रुप हम पेश करते है, उससे ही माता का हम कृपा पात्र भी बने रहते है। यही कारण है, कि हमारे पास कम संसाधन रहते हुए भी हम अपने से बड़े दुश्मन को ललकारते है, तथा उससे आँख मे आंख मिलाकर बातें करते है। भारत की सीमा हमेशा सुरक्षित बनी रहे माता से इसका आशिर्वाद हम सभी भारतवासी मांंगते है।
विजया दशमी पर्व महान, माता करे सबका कल्याण।
भाव का पुर्ण वर्णन करना कठिन है, लेकिन हमने एक कोशिश की है। आप भी अपनी ओर से कोशिश किजिये तथा भारत को सर्वशक्तिमान बनने की यात्रा का साथी बनीये। जय मां दुर्गे, सुखी समाज, विजयी समाज, जय समाजीकता।
लेखक एवं प्रेषकः- अमर नाथ साहु