अतिथि आये

अतिथि आये

अतिथि आये

अतिथि का भी अपना एक गणित होता है जिससे उनका संयोग और बियोग बनता है। एक बार ऋषि दुर्वाशा अर्जुन के वन आश्रम मे पधारे। उनके एक भाई से भोजन का प्रबन्धन करने को कहकर अतिथि अपने साथी समेत वन मे ही स्नान को चले गये। इस बात की सुचना जब द्रोप्ती को हुई तो उनकी चिंतन बढ़ने लगी क्योकि घर मे सभी खाना खा चुके थे। फिर भी वह अपने भोजन के वर्तन को देखने गई। उसमे सिर्फ एक ही चावल था। इसी बिच भगवान कृष्ण अतिथि बनकर अपने भक्त के घर पहुँच गये। भक्त के भाव को जानकर उनकी समस्या का सामाधान कर दिया। भक्त बत्सल कृष्ण ने एक चावल खाकर अन्य अतिथि को भी तृप्त कर दिया। बांकी अतिथि स्नान के बाद ही अपने धाम को लौट गये। अतिथि मर्यादा के मान और सम्मान का ये उदाहरण जन मानस को खुब भाता है।

      कहा जाता है कि अतिथि भाव के भुखे होते है उनकी दष्टि हमेशा सेवा देने वालों पर रहती है। तभी कहते है कि अतिथि कि तनिक भी भाव मे बिघटन दिखाई दिया तो ऋषि दुर्वाशा तुरंत श्राप दे देते थे। सकुनी अपने भांजे दुर्योधने से कहते है कि दुर्योधन मन को स्थिर रखो अपने भाव को चेहरे पर मत आने दो। यदि इनको अपने अनादर का भाव दिखाई दिया तो तुरंत शाप दे देगें। ततछण दुर्योधन अपने भाव को दृढ़ करके सेवारत हो जाता है। ऋषि अपने आवभगत से खुशहोकर दुर्योधन को आर्शिवाद देकर अपने धाम को चले गये।

    अतिथियों की कोटी का वर्णन करना सुलभ भी नही है। आजकल के युग भोगविलाशी हो गया है। लोग भोगनिलाश को अपना नैसर्गिक सुख समझते है। वो यदी कुछ अन्य समझना भी चाहे तो अजकल की चकाचौंध भरी दुनिया उन्हे आगे बढ़ने नही देती है। असली भक्त की परीक्षा भी इसी समय होती है। कहते है अपने बिचार मे स्थिर रहने वाला भक्त कही नही भटकता है। उसका नियत मार्ग हमेशा रौशन होता रहता है। उसके शरीर की स्थिर वायु प्रवाह संयमित जीवन को निर्देशित करती रहती है। दृष्टि का सम्यक होना योग पुर्ण होता है जो वास्तविकता से हमे हमेशा साक्षत्कार कराती रहती है।

भाव प्रधान इस योग को समझना भी आसान नही होता है। जब बिभिषण आकाश मार्ग से अपने प्रभु श्रीराम से मिलने आये तो शत्रु के भाई समझकर भगवान श्रीराम भी सकते मे आ गये। परम ज्ञानी भक्त शिरोमणी हनुमान जी ने प्रभु से बिनती करते हुए बोले हे प्रभु जब अतिथि सामने आयेगा तो उसकी प्रकृति का बिन्यास ही आगे का मार्ग दर्शन करेगा, हमे उसी समय कार्य योजना का भाव भी मिल जायेगा। बिभिषण को देखकर भगवान श्री राम पहली ही नजर मे सब समझ गये, और उन्हे राम रावन युद्द का सारा कर्यभार सौप दिया।

उपरोक्त संवाद हमे यह कहता है कि व्यक्तिक संवाद का होना जरुरी है जिससे कि व्यक्ति का प्रकृति तथा उसके भाव का पता चल सके। हमारे निर्णय लेने की क्षमता ही हमे उस समय यथेष्ट साबित करेगा। इसलिए अतिथि के भाव के बारे मे पुर्ण नियोजित भाव को मानकर किया गया कार्य तथा उसके बाद के बिश्लेषन पर किया जाने वाला व्यवहार को नियंत्रित रखना चाहिए। हमारे समस्त गुण को दुर तक ले जाने वाला अतिथि को भारत वर्ष मे देवता के रुप मे देखा गया है। इनको अतिथि देव भवः की संज्ञा से शास्त्रो मे स्थान मिला है।

अतिथि के भाव को दर्शाने वाला ये काव्य लेख अतिथि को सेवा देनेवाले के प्रति निष्ठा को दर्शाता एक योग पुर्ण काव्य लेख है। अतिथि को सेवादेने वाले मे भगवान के भाव का झलकना अतिथि की श्रेष्टता को योथोस्थान देता है। यह भाव समस्त पुजित माना जाता है। हमे सेवालेने ताथ देने दोनो समय खुले दिल से व्यवहार करना चाहिए जिससे की आने वाले समय की पहचान सही से हो सके।

नोटः- यदि यह काव्य लेख आपको मार्ग दर्शक लग रहा है तो अपने बिचार की पोटरी खोलकर अपना भाव व्यक्त करे। इसके निमित आपको मेरा नमस्कार स्विकार हो।

लेखक एवं प्रेषकः- अमर नाथ साहु

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By sneha

One thought on “अतिथि आये

  • Subodh shastri -

    आपके अंदर जो ज्ञानरूपी सागर है उसमें हम भी गोता लगाने का प्रयास करते हैं लेकिन संभव नहीं हो पाता प्रभु। कृपया हमें उचित मार्गदर्शन करने की कृपा प्रदान करें।

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