भाव के मंदिर
मंदिर के प्रकृति तथा उसका आभामय विन्यास को लेकर हमारे मन मस्तिष्क में जो बिचार उतप्लावित होता है उससे एक भाव का निर्माण होता है जो हमे कुछ सिखने के लिए प्रेरित करता है। यही प्रेरणा हमें मंदिर ले जाती है और उस उतप्लावित भाव को स्थाई रुप देते हुए जीवन उत्कर्ष को आगे बढ़ाती है।
भाव सदा एक जैसा नही रहता है इसकी प्रकृति समय के साथ बाहरी व्यवस्था से बदलात रहता है लेकिन हमे जो बिचार आनंद देती है उसका हमारे जीवन मे बड़ा ही महत्व होता है। इसलिए भाव के प्रकार से हमारे बिचार तथा व्यवहार दोनो मे बदलाव होता रहता है जो हमारे सुख समृद्धी का द्योतक बनता है। हमेशा अच्छे भाव का स्वागत करे भान के मंदिर मे नित पुजा करे।
भाव मे स्थिर रहना जरुरी होता है जिससे की स्थाई रुप से गुण का समायोजन हो और जीवन मे बिशिष्टता का विकास हो जिससे कार्य अवरोध को साधने की हमारी प्रवृति पुरी हो सके। इसलिए समय समय पर मंदिर मे जाकर हम आपने बिचार की उच्यता को परखते रहते है और यह जरुरी भी है जिससे की हमारी प्रवीणता बनी रहे।
पुजा मे भी भाव का बड़ा ही योदगान होता है हमारे अंदर जो भाव पैदा होता है वही हमे सर्वश्रेष्ठ लगता है और हम उसी को सही मानते है। इसका संवंध भी हमारे अध्यात्म चिंतन से निकलता है। अपनाये जाने वाली पुजन विधी सिखी जा सकती है यदी खुद मे विश्वास हो, अन्यथा जो आप जानते है वही आपके लिए प्रयाप्त होता है।
जीवन मे सार्थक परिणाम के लिए गीता मे कर्म को प्रधान माना गया है और कर्म मे कौशल का होना जरुरी है जिससे की मार्ग मे वाधा नही आवे और सफलता सुगम हो इसके लिए भाव की प्रवालता को बनाये रखने की चुनौती होती है। हमारे गुणात्मक जीवन का आनंद जो उत्साह हमारे अंदर बनाता है वह सुख शांति देता है यही अनुपम है।
आईये आपने भाव का निर्माण के साथ आगे चलते जाये और जीवन को सभी वाधा से दुर करे। मंदिर मे नियमित जाये जिससे अपके गुण की प्रखरता बनी रहे और नये विचार का समावेस हो जिससे जीवन दर्पण की भाती अनुकरणीय बने। जय हो
लेखक एवं प्रेषकः अमर नाथ साहु
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